दास्तान - वक्त के फ़ैसले (भाग-३)

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राज ज़ूबी के पास आया और उसका हाथ पकड़ लिया, “तुम थोड़ा आराम करो,” उसने कहा, “उसके बाद मैंने जैसे तुम्हें समझाया है, वैसा ही करना, समझ गयी ना।”

ज़ूबी ने खामोश रहते हुए अपनी गर्दन हिला दी। उसे पता था कि इन हालातों में प्रश्न करना या विरोध करना मुनासिब नहीं है।

राज के जाने के थोड़ी देर बद वो फोन पर उस नंबर को मिलाने लगी जो राज ने उसे दिया था। वो सोच रही थी कि पता नहीं तकदीर ने उसके लिए भविष्य में क्या-क्या बचा कर रखा है।

फोन मिलते ही एक औरत ने जवाब दिया और ज़ूबी ने उसे अपना परिचय दिया।

“ओहहह... हाँ उसने मुझसे कहा था कि तुम जरूर फोन करोगी, दिल्ली में तुम्हारा स्वागत है” उस औरत ने कहा।

उस औरत का दोस्ती और प्यार भरा अंदाज़ पाकर ज़ूबी को थोड़ी राहत सी हुई। ज़ूबी पहले तो हिचकिचायी और फिर धीरे से बोली, “मुझे नहीं पता कि मैं आपको क्यों फोन कर रही हूँ।”

“उसके लिये तुम्हें मेरे ऑफिस में आना पड़ेगा जहाँ हम बात कर सकेंगे,” उस औरत ने जवाब दिया। फिर उसने ज़ूबी को एक पता लिखाया और दो घंटे में वहाँ पहुँचने के लिए कहा, “याद रखना सुबह के साढ़े दस तक पहुँच जाना।”

“ठीक है मैं पहुँच जाऊँगी,” कहकर ज़ूबी ना फोन रख दिया।

ज़ूबी तुरंत बिस्तर से उठी और नहाने के लिए बाथरूम में घुस गयी। शॉवर के नीचे खड़ी वो बाथरूम में लगे आइने में अपने बदन को देखने लगी। वो अपने कसे हुए बदन को देख रही थी और उसे पता था कि सारे मर्द उसके इस तराशे हुए बदन पर मरते हैं। उसने घंटों जिम में मेहनत कर के अपने बदन को कसा हुआ रखा था।

नहाते वक्त जब वो अपने निप्पल पर और चूत पर साबून लगाती तो एक अनजानी सी सनसनी शरीर में दौड़ जाती। वो जानती थी कि उसे फँसाया गया है और आने वाले कुछ दिनो में वसना के बहके मर्द उसके शरीर को इस्तमाल करने वाले है।

ज़ूबी ने उस बंगले के दरवाजे की घंटी बजायी। थोड़ी देर बाहर खड़े रहने के बाद दरवाजा खुला और उसने बंगले के अंदर कदम रखा। कमरे के अंदर कई सोफ़े पड़े थे और ढेर सारी कुर्सियाँ भी थी। एक कोने में टी.वी चल रहा था। कमरे में कोई नहीं था सिवाय उस औरत के जिसने दरवाजा खोला था। उसने ड्राइंग रूम के साथ बने ऑफिस में उसे पहुँचा दिया।

“हमारा काम आधे घंटे में शुरू होगा,” उस औरत ने कहा, “तुम अपने साथ कुछ कपड़े लायी हो बदलने के लिए।”

“नहीं,” ज़ूबी ने जवाब दिया, “मुझे पता नहीं था कि कपड़े भी साथ लाने हैं।”

“वैसे तो तुम्हें कपड़ों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी,” वो औरत हंसते हुए बोली, “तुम हो ही इतनी सुंदर कि तुमने क्या पहन रखा है इससे कोई फ़रक नहीं पड़ता।”

“पर मुझे यहाँ करना क्या होगा?” ज़ूबी ने थोड़ा सहमते हुए पूछा।

“यहाँ पर मर्द लोग आते हैं, और मेरी लड़कियों में से किसी को चुनते हैं... वो लड़की फिर उसका दिल बहलाती है...” उस औरत ने जवाब दिया।

“दिल बहलाती है?” ज़ूबी ने चौंकते हुए कहा।

“मिस्टर राज ने झूठ नहीं कहा था कि तुम बेवकूफ़ हो... अरे यार वो लड़की उस मर्द को एक कमरे में ले जाती है और फिर उससे चुदाई करवा कर उसका दिल बहलाती है।”

उस औरत की ये बात सुन कर ज़ूबी का दिल बैठ गया। राज ने उसे पूरी तरह रंडी बनाने कि ठान ली थी। क्या वो ये सब कर पायेगी। क्या उसके पास इन सब से बचने के लिए कोई रास्ता है। “तुम ये कहना चाहती हो कि मैं यहाँ रंडी बन जाऊँ?” ज़ूबी ने उस औरत से पूछा।

“क्या तुमने इसके पहले ये सब नहीं किया है?”

ज़ूबी देर तक उसकी आँखों में झाँकती रही और फिर अपनी गर्दन ना में हिला दी।

“देखो,” उस औरत ने कहा, “तुम्हारा शरीर इतना सुंदर है कि कोई भी मर्द तुम्हें नापसंद नहीं कर सकता। तुम्हारे इस सुंदर चेहरे और कसावदार बदन को देख कर मुझे लगता है कि तुममें रंडी बनने के सब गुण हैं।”

“पर एक रंडी,” ज़ूबी ने कहा, “लोग क्या कहेंगे!”

“किसी को पता नहीं चलेगा, डरो मत।”

उस औरत का अनुभव इतना था कि उसे पता था कि उसे ये नहीं पूछना था कि ज़ूबी तुम ये करोगी कि नहीं, बल्कि उसने उससे ये कहा कि वो सब संभाल लेगी, पैसों की वो चिंता ना करे उसे बस आने वाले मर्दों को सिर्फ़ खुश करना है।

“अब जब तुम पहनने के लिये कुछ लायी नहीं हो, तो ऐसा करो उस कमरे में चली जाओ और अपने कपड़े उतार दो, सिर्फ़ ब्रा और पैंटी पहने रहना और हाँ अपनी ऊँची ऐड़ी की सैंडल भी मत उतारना” उस औरत ने एक कमरे की और इशारा करते हुए कहा।

ज़ूबी जैसे ही मरे हुए कदमों से उस कमरे की तरफ़ बढ़ी उसे फोन कि घंटी सुनायी दी और फिर उस औरत को बात करते सुना।

“हेलो,” उस औरत की खुशी से भरी आवाज़ सुनायी दी, “हाँ, राकेश तुम आ सकते हो। ओह... हाँ एक नयी चिड़िया आयी है... तुम्हें पसंद आयेगी। बहुत ही सुंदर, जवान और मस्त है। हाँ...! हाँ... मेरे राजा! जल्दी आओ... अरे किसी और को दिखाऊँगी भी नहीं... जल्दी आना। हाँ आज उसका पहला दिन है।”

ज़ूबी की साँसें तेज हो गयी थीं, उसका दिल घबरा रहा था और अंगुलियाँ ब्लाऊज़ के बटन खोलते हुए काँप रही थी। बड़ी मुश्किल से उसने अपने कपड़े उतारे और फिर धीरे से दरवाजा खोल कर झाँकने लगी।

उस औरत ने उसे बाहर आने को कहा। ज़ूबी बहुत ही अपमानित और शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। तकदीर भी अजीब खेल खेल रही थी उसके साथ। कहाँ एक स्वाभिमानी वकील, अच्छे संसकारों में पली बड़ी वो आज अपने बदन का सौदा करने पर मजबूर थी।

क्रमशः

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